Band me guzaara

अब हर वक़्त ये मन करता है किसी एक ऐसे शख्स के साथ गुज़ारे जो हो तो आस पास ही,पर दूर भी कुछ कम नही।

इस साल में जनवरी से मार्च के बीच एक ऐसा समय था जब हम भूल ही चुके थे कि मास्क भी कुछ चीज है,फिर से वो भाग दौड़, फिर एक लंबा जाम, फिर नौकरी की खोज, फिर बिन बुलाए मेहमान, फिर हर वो चीज़ जो पहले कभी आम थी। हम फिर बाहर घूम रहे थे,हम सैनिटाइजर को भूल चुके थे, भीड़ का हिस्सा बन चुके थे।अच्छी बात ये थी कि हम फिर से धीरे धीरे उस ज़िंदगी मे लौट रहे थे जिसमे कशमकश के सिवा कुछ भी नही। पर नियति ने फिर हमें फिर मौका दिया कम मे गुज़ारा करने का,ज़रूरत और शौक़ में फर्क समझने का, रिश्तो की अहमियत परखने का और हम फिर कैद हो गए अपने अपने घरों में।

पहली बार जब 2020 में लॉकडाउन हुआ था तब सब कुछ नया नया सा था। ‘महामारी’ शब्द के बारे में सुना था पर जानते नही थे कि आखिर ये है क्या,शायद इसी कारण मन मे उत्साह था, और इसी उत्साह में घर मे दिन गुजारे… नए नए पकवान बनाए, भूले बिसरे खेल खेले, पुराने हिंदी टी.वी कार्यक्रम देखे, कभी थाली बजाई और  फिर कभी अंधेरे में नौ मिनट रोशनी भी फैलाई, टिड्डियां भी भगाई, बहुत सारी छोटी छोटी चीज़े थी जिनसे वो लॉकडाउन राजी ख़ुशी निकल गया। असल भय और असल महामारी से सामना तो 2020 के अक्टूबर ,नवंबर माह में हुआ था। शरदीय नवरात्रे के पास एक ऐसा समय था जब हर घर मे कोई ना कोई इस बीमारी की ज़द में था। पर लम्हा लम्हा वो बेरहम वक़्त भी निकला, फिर जिंदगी पहले वाली ताल में आने लगी और आज फिर वो बिता वक़्त एक नए रूप में, हम पर कई गुना ज्यादा बेरहम-ओ-बेदर्दी बरसा रहा है।

पिछले साल का लॉकडाउन तो जैसे तैसे मन बहला के निकाल लिया, पर अब इस साल का लॉकडाउन … भायडा, काट खाणे दौड़े हैं !  बोरियत अपने चरम स्थान पर जा चुकी है, ना मोबाइल में जी लगता है ना काम में ध्यान लगता है, ना ही किताबो को छूने की इच्छा होती है और टी.वी तो भूल ही चुके है।
इस बार कुछ सबसे ज्यादा चूभ रहा है तो वो है “बात”।  कोई बात करने को है ही नही, अब हाल कुछ ऐसा है कि घर वालो से भी कितनी बाते करे। कुछ नया तो हो नही रहा, पुराने किस्सो का सब का जिक्र कर लिया, अब बात करने के लिए कोई मुद्दा ही नही है। और कही ना कही अंदर ही अंदर रह कर हम सभी का स्वभाव बहुत परिवर्तित हो गया है,या युह कहे कि हमारा स्वभाव पहले भी ऐसा था,पर पहले किसी से दिन में 4 घंटे मिलना होता था,और अब किसी को 24 घंटे झेलना पड़ता है।  और सच कहूं तो सभी अपने घर मे अपने ही घर वालो से तंग हुए बैठे है। कुछ परेशानी पैसे ना कमाने की हैं, कुछ झुंझलाहट इसलिए भी है की ना हमारी परचून की दुकान है,ना दवाइयों की और ना ही सब्जी का ठेला हैं। सब का पता नही,मुझे तो एक लंबी यात्रा की आवश्यकता है। जिंदगी में एक नयापन होना चाहिये, रोज़ वो एक ही चेहरे देख देख कर अब जी हाचि अमुज गयो ए। कोई स्फूर्ति नही रही। कोई उमंग नही रही।तो अब क्या करे… बाहर जा नही सकते, घर बैठ नही सकते, तो फिर करे तो करे क्या,बंद में गुजारा तो करना पड़ेगा…

मैंने तो एक काम किया… मैंने की  ‘ कल्पना ‘
ये बात पहले लॉकडाउन से ही मेरे दिमाग मे थी,पर तब उसकी जरूरत नही समझी,अब मैंने कई यूट्यूब वीडियो देखें तो खुद पर यकीन हो गया कि लोग सच मे घर वालो के साथ अपने ही घर मे परेशान है। ये तो दिख रहा था कि ये महामारी सारी हदे पार कर रही है, और अब लोगो को फिर से घरों में कैद करना ही होगा, तो सरकार/प्रशासन को करना ये चाइये था कि नई योजना लानी चाहिये “स्वतः बंधन” । अधिकारियों को पता है कि अब लोगो को फिर से घरों में लॉकडाउन से कैद करना मुश्किल रहेगा, क्योकि लोगो मानसिक रूप से अब उतने तैयार नही है।  कोरोना फेफड़ो पर जरूर प्रहार करता है, पर उसका सबसे घातक प्रहार दिमाग पर होता है। ये अकेलापन ही है जो इस बीमारी में सबसे ज्यादा खतरनाक है। लोग परेशान है और जबरदस्ती उन्हें अंदर घरो में रखना मुश्किल भरा होगा।

ये पत्तागोभी और टमाटर से बने दिल  का आकार मैंने ही लॉकडाउन में तैयार किया था।😁

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