रस्म-ए-निस्बत

तुम्हारे जिस्म,जेवर कि तारीफ़ अब नही करुगा क्योकि यह कहने का हक ओ हुकूमत सिर्फ तुम्हारे ख़ाविंद को है।

मोहल्ला मोहब्बत वाला

जांगल,मारवाड़

मगसर २०७ ७ 

सही करते करते तो हर कोई गलत हो जाता है पर गलत करते ना जाने तुमने कैसे मुझे सही कर दिया,लिखना नहीं आता था मुझे, दिलकश रूह-ए-मौजूदगी तुम्हारी बहुत कुछ लिखना सिखा दिया, सावन का क्या पता था आब-ए-हयात में तुम्हारे संग​ भीगना सिखा दिया, निस्बत का मुझे क्या इल्म था तुमने जेवर है उल्फत में सजना सिखा दिया।जो कुछ अक्सरियत है मुझ में वह आज तुम्हारी और जो कुछ कमी है वह भी तुम्हारी, जो ख्वाहिश पूरी हुई वह तुम्हारी और जिस्म-ए-लम्स चाहत रह गई वह भी तुम्हारी। मैं नहीं जानता यह शुरुआत कब और कहां से हुई पर यह जरूर जानता हूं कि की शुरुआत सिर्फ मेरी तरफ से ही थी। कसूर सिर्फ तुम्हारा इतना सा था कि तुमने खुद को समझने की इजाजत मुझे दे दी और यह समा भी जानता है कि जब जब मैं किसी दोशीज़ा को समझने निकला हूं मजनू बनने से तो खुद को बचा लेता हूं पर मोहब्बत करने से नहीं रोक पाता।

तुम्हारे आने की खबर रखी घर से निकलने का वक्त जाना, घर आ वापस निकलना याद किया और तुम्हारा हर रास्ता जान लिया, इतना होश​ तो तुम्हें भी नहीं होगा अपनी बात का…मैं तुम्हारी आवाज सुन हम दोनों के बीच दूरी नाप लेता और इतना यकीन तो तुम्हें भी नहीं होगा अपने बदन पर कि मैं तुम्हारी परछाई से तुम्हारी खूबसूरती मान जाता पर सच यह भी कम नहीं कि आए दिन मैं तुम्हारी परछाई की लिए भी तरसने लगा, ख़ुदा न ख़्वास्ता दिख गई तुम तो पीछे परछाई से भी मोहब्बत करने लगा। तुमने मुझे क्या कुछ नहीं सिखाया…लिखना गुनगुनाना मुश्किलों से लड़ना परेशानियों से जीतना अलमस्त जीना बारिश में भीगना चांद को देख राते जागना जज्बात और जिस्म में फर्क करना खुश रहना प्यार बांटना प्यार करना और यहां तक कि बच्चे भी संभालना, हर एक बात हर एक कला सिखादी तुमने जो जिंदगी जीने में बेहद जरूरी है पर सिर्फ एक चीज तुम्हारी पहुंच से बाहर रह गई, कुछ गलतफहमियां दूर करना तुम भूल गयी बस​…साथ घर से निकलना,खुले आस्माँ के निचे मिलना,बिना गर्दन घुमाए आँखो का मिलना…खैर कुछ शक के दायरे मे भी रहना चाहिए। दूर रहकर मुझसे मेरा इम्तिहान लिया, समीप आ इज़्तिराब किया।तुम्हारी हर एक बात मुझे रास आई चाहे वह इज्जत करना हो या आबरू रखना, अदब में रहना हो या कुछ मन में रखना हो, तुम्हारी हर एक सांस मुझे तुम्हारे करीब लाई, नागवार गुजरी तो सिर्फ और सिर्फ मुझे तुम्हारी यह उजलत। एक तरफ सोचता हूं तो लगता है कि किस बात की जल्द मची थी तुम्हें,अभी उम्र ही क्या है तुम्हारी जो यह हिना का बोझ पाजेब की रोक और सिंदूर की टोक़,अभी तो आजाद रहना सीखा था कि एक अनजान आंगन में कैद हो रही हो, यहां कोई तो हबीब था वहां उस आंगन में तुम सिर्फ एक कनीज हो।प्यार महज दो दिन मिलेगा,फ़िर ताने,इल्ज़ामात,जी हुजूरी,बेरुखी,थप्पड़,तनाव से तुम्हारा वस्ता रहेगा। कुछ तो इंतजार करती या इत्तला ही करती। रस्म ए निस्बत फिर निगाह…किस तरह तुम किसी की संगिनी बन गई? या सिर्फ इतना बताओ कि अपने शोहर से क्या कहकर मुझे मिलवाओगी?
पलक झपका कर देखता हू तो एहसास होता है क्या अधिकार है तुम पर मेरा जो यह सब कुछ कहूं या सोचो। यह जिंदगी तुम्हारी है तुम जैसे चाहो जिस तरह चाहो और जिसके साथ चाहो इसे जी सकती हो, मेरा कोई वजूद नहीं है। यह तो मैं हूं जिसने तुम्हें सोते हुए देखा उस वक्त भी देखा जिस वक्त किसी ने तुम्हें नहीं देखा, मैं तुम्हारी पसंद जानता हूं तुम्हारी चाल समझता हूं और यहां तक कि तुम्हारे हर कपड़े से वाकिफ़ हूँ, पर यह सब कुछ मेरी नजर से…तुम्हारी नजर से मैं अब भी अजनबी हूं। तुमसे सिर्फ तुम्हारी जिंदगी नहीं तुमसे बहुत सी जिंदगीया जुडी है अलग है तो सिर्फ मेरी जिंदगी। तुम पर तुम्हारी जिंदगी पर तुम्हारे फैसले पर किसी पर भी मेरा कोई इख्तियार नहीं है। तुम्हारे मनमाने फैसले के बावजूद देखो आज भी मैं तुमसे बंधा हूं जैसे पायल तुम्हारे ही पांव में, मैंने सोच समझ कर कोई कदम नहीं उठाया,तुम्हे अपना इतना अजीज,अपने इतने करीब मान लिया कि तुम्हे अब दूर जाते देख ये दिल काप रहा है। बिखरी हुई से होगी अब जिंदगी जैसे टूटी हो पायल तुम्हारे ही पांव से।


तुम्हे चाहने की वजह तो मैं तुम्हारे सिर से पांव तक तारीफ-ए-पुल बांध बता सकता हूं पर मेरे लिए जब तक मुलाकात-ए-रूह नहीं होती मोहब्बत पूरी नहीं होती और मुझे जिसने तुम्हारा मुरीद बनाया वह था तुम्हारा रंग बदलना। नई कली के रंग सी हरी साड़ी, बिन बाजु कि लाल फ़ुल छपि कमीज़ तो कभी कोहनी तक आती आसमानी रंग की काली रंग की पजामी के साथ कुर्ती। हैरत तो तब हुई जब एक रात तुम्हे पीले झिने और बहुत तंग लिबास में देखा,एक ऐसे लिबास मे जो तुम्हारे नक्स़-ए-बदन की एक-एक गहराई वक्त-ए-फ़ुरक़त में मेरी रूह को नापने का मौका देता। पता नहीं यह मेरी आंखों की गलती है या तुम सच में इतनी हसीन हो कि हर पोशाक में तुम मुझे मल्लिका-ए-जन्नत, हयात-ए-नूर दिखती हो। हर वह रंग जिसमें तुम दिखी उस दिन मैंने वह रंग आजमाया कमाल का नशा था उस दिन जिस दिन तुम्हें मैंने अपने रंग में पाया पर यह  तुम्हारा रंग बदलना ही मुझे सबसे ज्यादा चुभा। मैं यह तो जानता था कि हम हमराही नहीं बन सकते पर तुमने एक अजनबी एक गैर को अपना हमसफर कैसे मान लिया? क्या वह रकम कमाता है इसलिए? बेशक मैं अभी कुछ नहीं पर एक मौका तो देती मैं यकीन दिलाता जो कुछ तनख्वाह  होती सिर्फ तुम्हारे लिए ही कमाता। पहले रकम कमाता फिर नाम फिर शोहरत ऐसा कुछ भी नहीं जो तुम्हारे साथ नहीं कमा पाता पर यह मेरी बेबस-ए-किस्मत,मेरा सबसे बड़ा नुकसान तो तभी हो गया जब तुमने अपने घर वालो कि पसंद पर एतराज नही किया।

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