Sawaan ka Sukha

सावन मे तो साथ था…तुम्हारा, मेरा, और बरसात का

ये रीत मुझे नागवार लगी
जब अकेली छत पर देखा
तो उस दिन बारिश नहीं थी,
जिस दिन घनघोर बरसे बादल
तो उस दिन तुम नहीं थी,
बरसात भी मूसलाधार बरसे
जिस दिन हम साथ मिले
तो उस दिन समझ पूरी नही थी।

हवा में बह रही बूंदे
बूंदों में भीग रहे परिंदे
यह परिंदे तुम्हारी मुंडेर पर
तुम्हारी ना आने की खबर दे रहे,
तुम इन्हें तो दे रही हो
बेवजह बेहिसाब पनाह
फिर क्यो बैठी हो तुम
छुप के दीवारों में तनहा।

बूंद बूंद इस बरसात में
तुम्हारे आने की आस रही
तुम्हे मिलाने के लिए मुझसे
मेरी बरसात शाम तक रही,
“मैं इस बार भीग रही हूं पर…
तुम्हारे साथ ये बरसात आखरी होगी”
पारीना बरखा याद आने लगी
तुम्हारी कहीं बात फिर याद आने लगी।

मेरे सावन की संजीवता है तुमसे
मेरे सावन की मेघ मल्हार है तुमसे
मेरे सावन का सब्जा भी तुमसे
मेरे सावन का तआरुफ़ ही तुमसे
“सिर्फ शब्दों में ही बांध सकते हो तुम…
हीना का रंग बरखा में और निखर जाएगा”
फिर मृग की भांति मुझे भटकाने लगी
तुम्हारी कही बातें मुझे मेह में रुलाने लगी।

शया भी नहीं दिखा सकी चेहरा
दिन में अब काली रात हो गई
बहाव में बहकर आई बूंदे
तुम जिस दरवाजे के सहारे खड़ी हुई
पीछे तुम्हारी परछाई आ गई,
भीगा लेती तुम भी अपने पांव
मगर…मेरे और तुम्हारे बीच,
तुम्हारे निसबत आ गई।

तुम संग बरसात की आस
तुम्हारे साथ चली गई
ना जाने कहां बरसी वो बदली
तुम बादल भी काले घने ले गई
पीछे सूखा मेरा मन रह गया
इंतजार अजहद ही किया मैने,
तुम्हारा आंगन तो तरबदर हुआ
मगर मेरा सावन सूखा रह गया।

दो बरसात हुई इस बार
कोई आबाद तो कोई बर्बाद अब
बूंदे जो गिरी बिखर तुम्हारी सांसों से
वहां शजर आज नही तो कल,
मौजूदगी तुम्हारी जिंदा करती
क्या असर होगा बरसात का भी
कितने भी बरस क्यों ना जाए
बिन तुम्हारे सब कुछ बंजर।

हाथ बाहर निकाल देखो
बूंदे ही बरस रही
या तुम्हें देने घाव कोई
मैं तो पूरा ही नीला
इन घाव से हुआ हरा,
कैसा सलीका है बादलो का…
आगे ही पीड़ में था बदन और कर दिया दर्द गहरा ।

देखो फतिंगा ये पतंगा ही बेहतर
जिसकी चाह आँख खुलने से
उसमें मिलकर ही खत्म होते
मेरा तो सबर में ही सावन बीते,
ना हाथो में बारिश की झुर्रिया
ना ताऊस की वो झूम
आसमा की गरज से सहमे
अरमान मानो तलाई में ले डूबे।

अब सिला मौसम उमस कर बैठा
इंतजार में देखो मैं कब से
तुम्हारे घर की ओर मुंह कर बैठा,
तुम तो अनछुई हो फुहार से
मुझे ही सावन का झला ले बैठा,
घर-घराने वाली हो गई हो अब
उतार दो सिरहाने से बरसात
मुझे तो सावन का सूखा ले बैठा

इर्द गिर्द तुम्हे कोई खंगाले
गौर करो तुम्हे कोई पुकारे
आवाज़ तुम्हे तुम्हारे खाविंद की,
अनसुना भी कब तक करोगी
छत पर आती रिमझिम
कमरे से आती फरमाइशे,
साथ ना मेरे ना बरसात के
रहना तुम्हे बीच उन्ही
इंसानो के।

पर ये बारिश का ये तकल्लुफ़
मुझे कुछ गवारा भी लगा
मैं नहीं भीगा बरसात में तो
देर रात बाद इंतजार में तुम्हारे
एक वक्फा बाद बारिश
फिर हुई शुरू हो गई,
तुम्हारा मन भी भागा दर-ब-दर
हम दोने के नयन तरबतर।

ये सलूक जाने कैसा रहा
ना तुम्हारे,ना मेरे हाथ मे कुछ रहा
ये सावन का कैसा मन रहा
बरस कर भी मन तरस में रहा,
साज ओ सज्जा या बीमारी
कोई बहाना तुम दें देना
मैं ठहरा मुंतज़िर,कह दूंगा…
मेरा सावन सूखा रहा।

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